भारत के दक्षिण में स्थित महिलारोप्य नामक राजधानी का राजा प्रचण्ड प्रतापी अमरसिंह था, जो सभी कलाओं का मर्मज्ञ, विनम्र और उदार भी था। राजा के तीन पुत्र थे – बहुशक्ति, उग्रशक्ति और अनन्तशक्ति। दुर्भाग्यवश ये तीनों महामूर्ख थे और राजा के उत्तराधिकारी बनने के योग्य नहीं थे। अपने विशाल राज्य के अंधकारमय भविष्य की संभावना राजा को सदैव चिंतित करती थी। एक दिन राजा अमरसिंह ने अपने मंत्रियों और सलाहकारों को बुला कर कहा—आप सब मेरे शुभचिंतक हैं और मेरे पुत्रों की विवेकशून्यता एवं बुद्धिहीनता आपसे छुपी नहीं है। हे गुणीजनों, क्या मेरी अयोग्य संतानें गुणवान नहीं बन सकतीं? क्या मेरे राज्य में कोई भी ब्राह्मण इन पुत्रों को शिक्षित करने में समर्थ नहीं? नीतिकारों ने भी कहा है—

अजातमृतमूर्खेभ्यो मृताजातौ सुतौ वरम् ।
यतस्तौ स्वल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत् ॥

पुत्र का जन्म न होना, हो कर मर जाना, अत्यंत मूर्ख होना—इन तीनों स्थितियों में पुत्र का अत्यंत मूर्ख होना सर्वाधिक दुःखद होता है। पहले दो का कष्ट कुछ समय ही रहता है, परंतु मूर्ख पुत्र जीवन भर तड़पाता है।

यह सुनकर एक मंत्री बोला—महाराज! ज्ञान अर्जन के लिए समय की आवश्यकता होती है। पाणिनि के व्याकरण में पारंगत होने में बारह वर्ष लगते हैं। इसके अतिरिक्त मनुस्मृति, अर्थशास्त्र, वात्स्यायन द्वारा प्रणीत कामशास्त्र इन सभी ग्रंथों की जानकारी के लिए समय तो चाहिए ही।
यह सुनकर राजा के चेहरे पर उदासी छा गई। उन्हें व्यथित देख सुमति नामक मंत्री बोला—महाराज! मेरे साथी की बात सही है परंतु आपके बालकों के लिये एक सरल उपाय है। हमारे राज्य में विष्णु शर्मा नामक एक विद्वान् ब्राह्मण हैं, वह निश्चित ही आपके पुत्रों को शिक्षित कर आपको चिंतामुक्त कर सकते हैं।

राजा ने आचार्य विष्णु शर्मा को संदेश भिजवाया। विष्णु शर्मा सभा में पधारे और राजा ने स्वागत-सत्कार करने के पश्चात उन्हें अपनी समस्या बतायी। आचार्य ने कहा—आपके दुःख से दुःखी हो कर आपकी प्रार्थना को स्वीकार करता हूँ। मैं आपके तीनों पुत्रों को छह महीनों में कुशल राजनीतिज्ञ और व्यावहारिक ज्ञान में सिद्ध बनाने की घोषणा करता हूँ। और यदि मैं असफल होता हूँ तो अपने प्राण त्यागने की प्रतिज्ञा करता हूँ। राजा ने आचार्य विष्णु शर्मा के प्रति आभार प्रकट किया और अपने तीनों पुत्र उन्हें सौंप कर चिंतामुक्त हो गये।

आचार्य विष्णु शर्मा तीनों राजकुमारों को अपने आवास पर ले आये और उनके सुविधाजनक निवास और भोजन आदि की व्यवस्था की। उसके उपरान्त उन्होंने इन बालकों को सुशिक्षित करने हेतु निम्नलिखित पाँच तंत्रों वाले ग्रंथ – पञ्चतन्त्र – की रचना की—

  • मित्रभेद – शत्रु के मित्रों में फूट डालने, उन्हें आपस में लड़ाने तथा शत्रु को क्षीण बनाने के विभिन्न उपाय
  • मित्र सम्प्राप्ति – स्वयं की शक्ति व सामर्थ्य में वृद्धि हेतु उपयोगी व्यक्तियों से मित्रता करने और निभाने के विभिन्न उपाय
  • काकोलूकीय – परिस्थितिवश शत्रु से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने, उससे सावधान रहने, एवं गुप्तचरों का उचित उपयोग करने के विभिन्न उपाय
  • लब्धप्रणाश – शत्रु की विजय को मिट्टी में मिलाने के विभिन्न उपाय
  • अपरीक्षित कारक – किसी भी काम को प्रारंभ करने से पहले ध्यानपूर्वक मनन करने और हानि-लाभ की भली प्रकार समीक्षा करने के विभिन्न उपाय

पञ्चतन्त्र की रचना करके आचार्यजी ने राजकुमारों को पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। उनकी रुचिकारक अध्यापन शैली से बालकों का भी मन लगा रहा और परिणामस्वरूप तीनों राजकुमार छह महीनों में ही नीति-निपुण और बुद्धिमान् बन गये। इसीलिए पञ्चतन्त्र को विद्यार्थियों को लोक-व्यवहार में प्रशिक्षित करने का आदर्श ग्रन्थ मान लिया गया और इसकी प्रशंसा में यह वचन सत्य सिद्ध हुआ।

अधीते यः इदं नित्यं नीतिशास्त्रं शृणोति च ।
न पराभवमाप्नोति शक्रादपि कदाचन ॥

इस ग्रन्थ का अध्ययन करने वाला अथवा सुनने वाला व्यक्ति व्यवहारकुशल हो जाता है और उसे इंद्र जैसा प्रबल शत्रु भी पराजित नहीं कर सकता है।