मंथन: राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी

मंथन मोहनदास गाँधी (महात्मा) व रबिंद्रनाथ ठाकुर (गुरुदेव) के मध्य हुए पत्राचार एवं उनके द्वारा लिखे गए कुछ निबंधों के हिंदी अनुवाद का संकलन है।


मोतीहरी
२१ जनवरी १९१८

प्रिय गुरुदेव

इंदौर में आयोजित होने वाले हिंदी सम्मेलन में अपने भाषण के लिए मैं निम्नलिखित प्रश्नों पर बुद्धिजीवियों के विचार इकट्ठा कर रहा हूँ।

१ ॰ क्या हिंदी (या उर्दू) ही ऐसी भाषा नहीं जो अंतरप्रांतीय वार्तालाप व बाक़ी राष्ट्रीय कार्यवाही के लिए उपयुक्त है?
२ ॰ क्या आगामी कांग्रेस अधिवेशन में हिंदी को प्रमुखता से उपयोग नहीं करना चाहिए?
३ ॰ क्या यह वांछनीय व सम्भव नहीं कि हमारे उच्चतम शिक्षण संस्थान स्थानीय भाषाओं में पढ़ाएँ?

एवं क्या हमारे सभी प्राथमिकोत्तर विद्यालयों में हिंदी को एक अनिवार्य द्वितीय भाषा नहीं बना देना चाहिए?

मुझे लगता है कि अगर हमें जनता से जुड़ना है और अगर लोक सेवकों को जनता के साथ पूरे भारत में सफलतापूर्वक कार्य करना है, तो पूर्वोक्त प्रश्नों का हल शीघ्रातिशीघ्र निकालना होगा एवं इस कार्य को तत्परता से पूर्ण करना होगा। क्या आप मुझे अपने विचारों से यथाशीघ्र अवगत कर पाएँगें?

भवदीय
मो॰ क॰ गाँधी


शांतिनिकेतन
२४ जनवरी १९१८

प्रिय श्रीमान गाँधी

आपने मोतीहरी से जो प्रश्न भेजें थे उनका मैं सिर्फ़ हाँ में उत्तर दे सकता हूँ। बेशक अंतरप्रांतीय सम्पर्क के लिए हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रीय भाषा हो सकती है। पर कांग्रेस में हिंदी के प्रयोग को अमल में लाने में काफ़ी लम्बा समय लगेगा। प्रथमतः, वह मद्रासी लोगों के लिए वास्तव में एक विदेशी भाषा समान है, दूसरा, हमारे अधिकांश राजनेता स्वयं को इस भाषा में पर्याप्त रूप से व्यक्त नहीं कर पाएँगें जिसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है। यह कठिनाई सिर्फ़ अभ्यास की कमी के कारण ही नहीं होगी, पर इसीलिए भी कि राजनैतिक विचारों ने हमारे मस्तिष्क में मूल रूप अंग्रेज़ी में लिया है। अतः हिंदी को हमारे राष्ट्रीय कार्यवाही में वैकल्पिक बने रहना होगा जब तक राजनेताओं की नयी पीढ़ी जो हिंदी के महत्व से पूर्णतः अवगत हो, राष्ट्रीय दायित्व की स्वैच्छिक स्वीकृति के रूप में निरंतर अभ्यास द्वारा इसके सामान्य प्रयोग की ओर मार्ग प्रशस्त करे।

भवदीय
रबिंद्रनाथ ठाकुर